मुंशी प्रेमचंद का जन्म 1880 ईस्वी में वाराणसी से 5 मील दूर लमही नामक ग्राम में हुआ था। उनका मूल नाम धनपतराय था। उनके पिता मुंशी अजायबराय डाकखाने में नौकरी करते थे। उनका प्रारंभिक जीवन आर्थिक संकट में बीता। उन्होंने क्वीन्स कॉलेज से शिक्षा प्राप्त करके एक सरकारी स्कूल में अध्यापन कार्य शुरू कर दिया। कुछ दिनों तक वह सब-डिप्टी इंस्पेक्टर भी रहे। महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर उन्होंने नौकरी छोड़ दी और 1919 ईस्वी में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। बचपन में ही उनका विवाह हो गया था किंतु 1905 ईस्वी में उन्होंने दूसरा विवाह किया। प्रेमचंद 'नवाबराय' के नाम से उर्दू में कहानियां लिखते थे जो 'जमाना' तथा 'अदीब' नामक पत्रिकाओं में प्रकाशित होती थी। उनका पहला कहानी-संग्रह 'सोजे-वतन' था।

उन्होंने रामदास गौड़ की प्रेरणा से हिंदी में लेखन शुरू किया और अपना नाम प्रेमचंद्र रखा। नौकरी में मन ना लगने से संपादन का कार्य शुरू किया। बाद में अपनी स्वयं की पत्रिका 'हंस' निकाली। किंतु घाटा हो जाने के कारण इसे बंद करना पड़ा। कुछ समय तक उन्होंने बंबई में फिल्म कंपनी में भी काम किया। लौटकर 'जागरण' का प्रकाशन आरंभ किया किंतु वह भी न चला। प्रेमचंद ने अपनी कहानियों में सामान्य जनजीवन को स्थान दिया। कला और तकनीक की दृष्टि से यह कहानियां विश्व की श्रेष्ठ कहानियों के समकक्ष हैं। उनका पहला हिंदी कहानी संग्रह 1917 ईस्वी में 'मानसरोवर' नाम से प्रकाशित हुआ। इसके बाद 'प्रेम पूर्णिमा', 'प्रेम पचीसी', 'प्रेम प्रसून' 'प्रेम द्वादशी', 'प्रेम प्रतिमा', 'प्रेम तीर्थ', 'प्रेम पंचमी' आदि पुस्तकें प्रकाशित हुई जिनमें प्रेम प्रेमचंद का द्योतक है। बाद में समस्त कहानियां 'मानसरोवर' नाम से आठ भागों में प्रकाशित हुई।


प्रेमचंद का पहला उपन्यास 'सेवासदन' था। फिर 'प्रेमआश्रम,' 'रंगभूमि', 'कायाकल्प', 'गबन', 'कर्मभूमि' और 'गोदान' आदि उपन्यास प्रकाशित हुए। 'गोदान' के कारण उन्हें सर्वाधिक ख्याति मिली और वे 'उपन्यास सम्राट' कहलाए। गोदान में ग्रामीण जीवन का प्रतिनिधि 'होरी' अविस्मरणीय पात्र है। प्रेमचंद के पात्र प्रवृत्तियों के प्रतिनिधि हैं किंतु उनके नारी पात्र अधिक सफल हैं। प्रेमचंद ने उपन्यासों में सामाजिक कुरीतियों के साथ ही विदेशी शासन के दमन का भी अंकन किया है। समस्याओं का जितना गंभीर अध्ययन प्रेमचंद के उपन्यासों में मिलता है वह अन्यत्र कहीं नहीं मिलता। वह यथार्थवादी भी थे और आदर्शवादी भी। प्रेमचंद्र की भाषा उर्दू मिश्रित सरल खड़ी बोली है जिस पर ग्रामीण मुहावरों की चाशनी चढ़ी है। ऐसा दूसरा कहानीकार या उपन्यास लेखक अभी तक सामने नहीं आया। प्रेमचंद के सुपुत्र अमृतराय ने अपने पिता को कलम का सिपाही कहा है। कुछ अन्य साहित्यकारों ने प्रेमचंद की तुलना 'गोर्की' से की है।

बॉलीवुड

हिंदी फिल्म उद्योग में अपनी किस्मत आजमाने के लिए प्रेमचंद 31 मई 1934 को बंबई पहुंचे। उन्होंने प्रोडक्शन हाउस अजंता सिनेटोन के लिए एक पटकथा लेखन की नौकरी स्वीकार की थी, उम्मीद है कि 8000 का सालाना वेतन उनकी वित्तीय परेशानियों को दूर करने में मदद करेगा।

वह दादर में रहे, और फिल्म मजदूर (“द लेबर”) की पटकथा लिखी। मोहन भवानी द्वारा निर्देशित फिल्म में मजदूर वर्ग की खराब स्थितियों को दर्शाया गया है। कुछ प्रभावशाली व्यवसायी बॉम्बे में इसकी रिलीज पर रोक लगाने में कामयाब रहे। फिल्म को लाहौर और दिल्ली में रिलीज़ किया गया था, लेकिन इसके बाद फिर से इसे प्रतिबंधित कर दिया गया, क्योंकि इसने मिल श्रमिकों को मालिकों के खिलाफ खड़े होने के लिए प्रेरित किया।

अंतिम दिन

बंबई छोड़ने के बाद, प्रेमचंद इलाहाबाद में बसना चाहते थे, जहाँ उनके बेटे श्रीपत राय और अमृत कुमार राय पढ़ रहे थे। उन्होंने वहाँ से हंस प्रकाशित करने की योजना भी बनाई। हालाँकि, अपनी वित्तीय स्थिति और अस्वस्थता के कारण, उन्हें हंस को भारतीय साहित्य वकील को सौंपना पड़ा और बनारस चले गए।

प्रेमचंद को 1936 में लखनऊ में प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अध्यक्ष के रूप में चुना गया था। उनका 8 अक्टूबर 1936 को कई दिनों की बीमारी के बाद और पद पर रहते हुए निधन हो गया।

गोदान (द गिफ्ट ऑफ ए काउ, 1936), प्रेमचंद के अंतिम पूर्ण किए गए कार्य को आमतौर पर उनके सर्वश्रेष्ठ उपन्यास के रूप में स्वीकार किया जाता है, और उन्हें सर्वश्रेष्ठ हिंदी उपन्यासों में से एक माना जाता है।





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